Wednesday, December 3, 2014

Poetry Published in Literary Magazine "साहित्य वाटिका"


वही मेरी आँखों का काजल रहा है ,
हमेशा जो नज़रों से ओझल रहा है ।

जहाँ हसरतों की शमा बुझ रही है ,
वहीँ आरज़ू का दिया जल रहा है । 

मेरी खेतियाँ सूखती जा रही हैं ,
गुरेज़ाँ सदा से ही बादल रहा है ।

वही आज मुझसे है बेज़ार सा कुछ ,
कभी मेरी ख़ातिर जो पागल रहा है ।

सफ़र ज़िन्दगी का था दुश्वार लेकिन
हर इक मोड़ पर माँ का संबल रहा है

दिया मुझको सीमा सभी कुछ है रब ने ,
करम मुझपे उसका मुकम्मल रहा है
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ना ज़मीं का न वो आसमानों का है ,
शौक़ जिसको मुसलसल उड़ानों का है ।

उसको देखूं तो लगता है ऐसा मुझे ,
ये बनाया हुआ कारखानों का है ।

नापलीं उसने सारी ही ऊँचाईयाँ ,
रास्ता बाद इसके ढलानों का है ।

हमको सच बोलने की मिली है सज़ा ,
ये करिश्मा भी झूठे बयानों का है ।

लोग रहते थे *सीमा * जहां कल तलक ,
सिल्सिला दूर तक अब मकानों का है

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