नर्म लिहाफ़
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सियाह रात का एक क़तरा जब
आँखों के बेचैन दरिया की
कशमकश से उलझने लगा,
बस वही एक शख्स अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिला|
मैं ठिठक कर उसके एहसास को
छूती टटोलती आँचल में छुपा
रूह के तहख़ाने में, सहेज लेती हूँ
कुछ हसरतें नर्म लिहाफ़ में
डूबके मचलने लगती हैं,
जब वही एक शख्स अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिला|
कुछ मजबूरियों की पगडंडियाँ
जो मेरे शाने पे उभर आती हैं,
अपने ही यक़ीन के स्पर्श की
सुगबुगाहट से हट,
चाँद के साथ मेरी हथेलियों में
चुपके-चुपके से सिमटने लगती हैं,
सच वही बस वही एक शख्स जब अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिला।
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