Ghazal published in " Inquilab urdu daily news paper" today 26 th May 2013
(http://epaper.inquilab.com/epaperhome.aspx?issue=26052013&edd=Delhi)
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Aaag pani bhi hay matti hay hawa hay mujh mein
mere khalik ka koi raaz chupa hai mujh mein
Ho na jaaye taho-bala kahin duniya sari
aik tufan-e-bala kheez chupa hai mujhe main
Mere Afkaar bikherenge uzale ek din
ek jalta hua deepak jo rakha hai mujh mein
uska kar roop nigahon mein basa hai meri
uska har rang bhi sadiyon se raha hai mujh mein
Rok leti hoon kadam khood hi galat raho'n se
aisa lagta hai koi mujhse bada hai mujh mein
ek muddat se vo khamosh hai "seema" lakin
ek muddat se vahi cheekh raha hai mujh mein
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आग-पानी भी है मिट्टी है हवा है मुझमें
मेरे खालिक का कोई राज़ छुपा है मुझमें ।
मेरे खालिक का कोई राज़ छुपा है मुझमें ।
हो न जाए तहो -बाला कहीं दुनिया सारी ,
एक तूफ़ाने -बला ख़ेज़ bapa मुझमें ।
एक तूफ़ाने -बला ख़ेज़ bapa मुझमें ।
मेरे अफ़्कार बिखेरेंगे उजाले इक दिन ,
एक जलता हुआ दीपक जो रखा है मुझमें ।
उसका हर रूप निगाहों में बसा है मेरी ,
उसका हर रंग भी सदियों से रहा है मुझमें ।
एक जलता हुआ दीपक जो रखा है मुझमें ।
उसका हर रूप निगाहों में बसा है मेरी ,
उसका हर रंग भी सदियों से रहा है मुझमें ।
रोक लेती हूँ क़दम खुद ही ग़लत राहों से ,
ऐसा लगता है कोई मुझसे बड़ा है मुझमें ।
ऐसा लगता है कोई मुझसे बड़ा है मुझमें ।
एक मुद्दत से वो ख़ामोश है सीमा लेकिन
एक मुद्दत से वही चीख़ रहा है मुझमें ।
एक मुद्दत से वही चीख़ रहा है मुझमें ।
1 comment:
bahut hi acha or behad kuhbsurat likha hai aapne , itna aacha ki dil ko ish kadar chuu gai line ki lafajo me baya nhi kar sakta
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